हमारे जीवन में बहुत से कार्य ऐसे होते हैं जिन्हें हम बड़े गर्व से कहते हैं – “मैंने किया”, “मैं कर रहा हूँ”, “ये मेरे कारण संभव हुआ”। यह सोचने का तरीका सामान्य है, लेकिन अगर हम ज़रा गहराई से सोचें, तो पाएंगे कि इसके पीछे कहीं न कहीं अहं छिपा होता है। वहीं अगर यही कार्य हम इस भाव से करें कि “मैं कुछ नहीं कर रहा, मैं तो बस दे रहा हूँ, जो मुझे ऊपरवाले ने दिया है, वही आगे बढ़ा रहा हूँ”, तो हमारे कर्मों का स्वरूप ही बदल जाता है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से:
आध्यात्मिकता में, कर्तापन (मैं कर रहा हूँ) को अहंकार का बीज माना गया है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं:
> "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"
(कर्म करने में तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं)
यहाँ स्पष्ट रूप से समझाया गया है कि हम सिर्फ कर्म के माध्यम हैं, कर्ता नहीं। जब हम यह मानते हैं कि “मैं दे रहा हूँ”, तो हम खुद को उस ईश्वर का एक साधन मानते हैं, जो इस संसार में प्रेम, सेवा और सहयोग को फैलाने के लिए हमें चुनता है।
सामाजिक दृष्टिकोण से:
जब हम किसी की मदद करते हैं, दान करते हैं, या किसी कार्य में योगदान देते हैं, तो अगर हमारी सोच “मैंने किया” वाली हो, तो वह अहसान जैसा बन जाता है। सामने वाले पर एक मानसिक बोझ होता है।
लेकिन अगर हम यह भावना रखें कि “मैं तो सिर्फ दे रहा हूँ, जो मेरे पास है वो सबका है”, तो वह सेवा बन जाती है — निश्छल, निस्वार्थ और सच्ची।
यह भावना क्या बदलती है?
अहंकार घटता है
कर्मों में निष्ठा और आनंद आता है
दूसरों को छोटा समझने की प्रवृत्ति समाप्त होती है
ईश्वर से जुड़ाव महसूस होता है
सामाजिक समरसता और करुणा बढ़ती है
कैसे अपनाएं "मैं दे रहा हूँ" की भावना?
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1. हर कार्य से पहले एक क्षण रुकें और सोचें: "क्या मैं वाकई कर्ता हूँ?"
2. अपने संसाधनों को दान न समझें, साझा करें।
3. प्राप्ति नहीं, उपयोगिता पर ध्यान दें।
4. धन, समय, ज्ञान – जो भी है, उसका प्रवाह बनाए रखें।
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निष्कर्ष:
जीवन में अगर हम “मैं कर रहा हूँ” के बजाय “मैं दे रहा हूँ” की सोच रख पाएं, तो हमारे कर्म भी पूजा बन जाएंगे और जीवन, एक साधना। यही वह दृष्टिकोण है जो व्यक्ति को न केवल आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक ले जाता है, बल्कि समाज को भी प्रेम, शांति और सेवा का मार्ग दिखाता है।
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